बालकृष्ण हरि चापेकर:भारत की क्रांतिकारी चेतना के अग्रदूत (1873 - 12 मई 1899)



बालकृष्ण हरि चापेकर: भारत की क्रांतिकारी चेतना के अग्रदूत (1873 - 12 मई 1899)


“स्वतंत्रता कोई याचना नहीं, यह एक अधिकार है – और अधिकार छीना जाता है।”

यह भावना बालकृष्ण हरि चापेकर के जीवन का मूलमंत्र थी।





परिचय:


बालकृष्ण हरि चापेकर, जिन्हें बापूराव चापेकर के नाम से भी जाना जाता है, भारत के स्वाधीनता संग्राम के उस आरंभिक कालखंड के वीर योद्धा थे, जब देश की अधिकतर जनता अभी भय और निराशा के अंधकार में जी रही थी। वे अपने दो छोटे भाइयों, दामोदर और वासुदेव चापेकर, के साथ मिलकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध वह शंखनाद कर गए, जिसने आने वाली पीढ़ियों को सशस्त्र क्रांति का मार्ग दिखाया। चापेकर बंधु उन पहले क्रांतिकारियों में से थे, जिन्होंने अन्याय के विरुद्ध हथियार उठाने का साहस दिखाया और भारत की युवा चेतना को झकझोरा।




पृष्ठभूमि और प्रारंभिक जीवन:


बालकृष्ण चापेकर का जन्म 1873 में पुणे के एक परंपरागत, शिक्षित, और धार्मिक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता हरि चापेकर की भक्ति एवं मराठी की साहित्यिक अभिरुचि का बालकृष्ण पर गहरा प्रभाव पड़ा। वह प्रारंभ से ही अध्ययनशील, जिज्ञासु और धर्मपरायण थे। बचपन में ही उन्होंने भारतीय संस्कृति, इतिहास और धर्मग्रंथों का अध्ययन किया और समाज की दशा-दिशा पर चिंतन करने लगे। उस समय महाराष्ट्र में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के नेतृत्व में जागरूकता की लहर उठ रही थी। उनके पत्र ‘केसरी’ और ‘मराठा’ ने चापेकर बंधुओं के भीतर सोई राष्ट्रवादी भावना को जाग्रत किया। ब्रिटिश शासन की नीतियों, विशेषकर भारतीयों के प्रति उनके भेदभावपूर्ण व्यवहार, ने चापेकर बंधुओं को यह अहसास करा दिया कि आज़ादी केवल प्रार्थनाओं या याचिकाओं से नहीं मिलेगी।



प्लेग की महामारी और ब्रिटिश दमन:


1896 में पुणे में भयानक ब्यूबोनिक प्लेग फैल गया। इस संकट की घड़ी में जहाँ सरकार को संवेदनशीलता दिखानी चाहिए थी, वहाँ उसने दमन और अपमान की नीति अपनाई। रैंड नामक एक ब्रिटिश अधिकारी को 'प्लेग कमिश्नर' बनाकर भेजा गया, जिसने भारतीयों के घरों में जबरन घुसकर तलाशी अभियान चलवाया। महिलाओं की अस्मिता को तार-तार किया गया, धार्मिक भावनाओं को आहत किया गया, और बच्चों तक को नहीं बख्शा गया। इस अन्याय को देखकर चापेकर बंधुओं का खून खौल उठा। यह केवल एक महामारी नहीं थी, यह ब्रिटिश शासन की बर्बरता का नया चेहरा था, जो भारतीय अस्मिता के लिए असहनीय बन गया था।


ब्रिटिश अधिकारी रैंड की हत्या:


बालकृष्ण, दामोदर और वासुदेव ने संकल्प लिया कि अब केवल विरोध या लेखन नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष क्रांतिकारी कार्यवाही करनी होगी। उन्होंने रैंड को भारत के अपमान का प्रतीक मानकर उसे दंडित करने का निर्णय लिया।


22 जून 1897 को, जब पुणे में क्वीन विक्टोरिया की डायमंड जुबली का उत्सव मनाया जा रहा था, तभी रैंड और उसका सहयोगी लेफ्टिनेंट आयर्स्ट एक बग्घी में लौट रहे थे। इसी समय चापेकर बंधुओं ने घात लगाकर उन पर गोलियाँ चला दीं। रैंड मारा गया और आयर्स्ट गंभीर रूप से घायल हुआ। यह घटना तत्कालीन भारत के इतिहास में पहली बार हुई थी जब किसी ब्रिटिश अधिकारी की सार्वजनिक रूप से हत्या की गई।



गिरफ्तारी और बलिदान:


हत्या के पश्चात, पुलिस ने बड़े पैमाने पर छानबीन शुरू की। अंततः चापेकर बंधु पकड़े गए। इस प्रक्रिया में उन्हें शारीरिक और मानसिक यातनाएँ दी गईं, परंतु उन्होंने अपने आदर्शों से समझौता नहीं किया। उन्होंने गर्व से अपने कृत्य को स्वीकारा और मृत्यु को गले लगाया।


12 मई 1899 को, बालकृष्ण हरि चापेकर को पुणे जेल में फांसी दी गई। उनके भाइयों – दामोदर और वासुदेव – को भी शीघ्र ही फांसी दे दी गई। यह केवल तीन युवकों की शहादत नहीं थी, यह भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन की पहली चिंगारी थी, जिसने भविष्य के अनेक युवाओं के दिलों में क्रांति की मशाल जलाई।


महत्व और विरासत:


प्रथम क्रांतिकारी बलिदान: चापेकर बंधु वे पहले क्रांतिकारी थे जिन्होंने अंग्रेज़ों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष किया। वे केवल भावनाओं में बहकर नहीं, बल्कि सुनियोजित ढंग से क्रांति का मार्ग प्रशस्त कर गए।


प्रेरणा के स्रोत: 

उनके बलिदान ने विनायक दामोदर सावरकर, खुदीराम बोस, भगत सिंह, राजगुरु और चंद्रशेखर आज़ाद जैसे अनेक क्रांतिकारियों को प्रेरित किया। सावरकर ने उन्हें “आधुनिक भारत के प्रथम क्रांतिकारी” कहा था।

धर्म और राष्ट्र का संगम:

 बालकृष्ण धार्मिक थे, परंतु उनका धर्म संकीर्ण नहीं था। वह भारतीय संस्कृति, गौरव और आत्मसम्मान की रक्षा के लिए क्रांति को धर्म समझते थे।

 क्रांति की चेतना का प्रारंभ:

 उस काल में जब आज़ादी की बात करना भी देशद्रोह माना जाता था, चापेकर बंधु वह नाम थे जिन्होंने प्रतिरोध की पहली बंदूक चलाई।

निष्कर्ष 


बालकृष्ण हरि चापेकर और उनके भाइयों का जीवन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का वह पृष्ठ है, जो रक्त से लिखा गया, परंतु आज भी उतना ही प्रेरणादायक है। उन्होंने दिखाया कि अगर आत्मबल हो, तो तीन युवक भी समूचे साम्राज्य की नींव हिला सकते हैं। उनका बलिदान केवल एक घटना नहीं, बल्कि भारत की स्वतंत्रता यात्रा का आरंभिक प्रकाश-स्तंभ है, जो आने वाली पीढ़ियों को यह संदेश देता है:

"ग़ुलामी स्वीकार्य नहीं – आज़ादी अनिवार्य है।


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