गोपाल कृष्ण गोखले: भारत के उदार राष्ट्रवादी और गांधी के राजनीतिक गुरु,(9 मई 1866- 19 फरवरी 1915)


गोपाल कृष्ण गोखले: भारत के उदार राष्ट्रवादी और गांधी के राजनीतिक गुरु,(9 मई 1866- 19 फरवरी 1915)

भूमिका

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में यदि हम विचारधारा, नैतिकता और अहिंसात्मक संघर्ष के मूल स्रोतों को खोजें, तो गोपाल कृष्ण गोखले का नाम सर्वोपरि दिखाई देता है। वे ऐसे नेता थे जो एक ओर ब्रिटिश शासन की गलत नीतियों की आलोचना करते थे, वहीं दूसरी ओर वे यह भी मानते थे कि भारत में सुधार संवैधानिक तरीकों और शांतिपूर्ण संवाद के माध्यम से ही स्थायी रूप से लाया जा सकता है। वे आधुनिक भारत के बौद्धिक और नैतिक स्तंभों में से एक थे।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

गोखले का जन्म 9 मई 1866 को महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में हुआ। उनका परिवार आर्थिक रूप से संपन्न नहीं था, फिर भी उनके माता-पिता ने शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। गोखले ने पुणे के डेक्कन कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। वे भारतीय समाज में अंग्रेजी शिक्षा के प्रवेश की नई लहर का हिस्सा बने और उसी ने उन्हें एक आधुनिक दृष्टिकोण प्रदान किया।

उन्हें जस्टिस महादेव गोविंद रानाडे जैसे समाज सुधारकों और विचारकों का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। रानाडे उनके आदर्श बने। उन्होंने गोखले को यह सिखाया कि केवल राजनीति ही नहीं, सामाजिक सुधार भी उतना ही आवश्यक है।

राजनीतिक उदय और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में भूमिका

1889 में गोखले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े। उस समय कांग्रेस एक बुद्धिजीवी संस्था थी जो ब्रिटिश सरकार के सामने भारतीयों की समस्याएं और मांगें रखती थी। गोखले शीघ्र ही इसके 'उदारवादी' (Moderate) गुट के प्रमुख प्रवक्ता बन गए।

1905 का कांग्रेस अधिवेशन – अध्यक्ष के रूप में गोखले

1905 में बनारस अधिवेशन में उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। उस समय बंगाल का विभाजन एक प्रमुख राजनीतिक मुद्दा था। गोखले ने इस पर गहरी संवेदना के साथ अपनी बात रखी। वे विभाजन के खिलाफ थे लेकिन इसके विरोध में हिंसात्मक या भावनात्मक भाषा का उपयोग नहीं करते थे।

सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी (1905)

गोखले को यह अहसास हो गया था कि भारत को केवल राजनीतिक स्वतंत्रता ही नहीं, सामाजिक और शैक्षिक पुनर्जागरण की भी आवश्यकता है। इसी उद्देश्य से उन्होंने "सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी" की स्थापना की। इस संस्था के प्रमुख उद्देश्य थे:

  • राष्ट्रीय सेवा के लिए युवाओं को प्रशिक्षित करना
  • देश में शिक्षा का प्रचार करना
  • स्वास्थ्य, स्वच्छता और सामाजिक जागरूकता के अभियान चलाना

यह संस्था आज भी कार्यरत है और सामाजिक कार्यों में योगदान देती है।

इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में कार्य

गोखले 1902 में इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य बने। यह ब्रिटिश भारत की सर्वोच्च विधायी संस्था थी। वहाँ उन्होंने आर्थिक नीतियों, शिक्षा प्रणाली और कर प्रणाली पर गहन विश्लेषण किया। वे भारतीय किसानों की दुर्दशा, अत्यधिक करों और शिक्षा की कमी पर सदैव सरकार को कठघरे में खड़ा करते थे।

उनका एक प्रसिद्ध भाषण "The Budget Speech of 1902" आज भी ब्रिटिश भारतीय इतिहास की सबसे प्रखर आलोचनाओं में गिना जाता है।

महात्मा गांधी पर प्रभाव

गांधीजी ने जब 1915 में दक्षिण अफ्रीका से लौटकर भारत में कदम रखा, तब गोखले ने उन्हें भारतीय परिस्थितियों को समझने की सलाह दी। उन्होंने गांधी से कहा कि वे एक वर्ष तक भारत भ्रमण करें और तुरंत कोई राजनीतिक आंदोलन न करें। गांधीजी ने उन्हें अपना 'राजनीतिक गुरु' कहा और उनकी सलाहों का आजीवन पालन किया।

गांधीजी ने लिखा—
"If I had no other source for the guidance of my life, but Gokhale's character, I would still know how to act."

बाल गंगाधर तिलक से वैचारिक मतभेद

गोखले और तिलक दोनों राष्ट्रवादी थे लेकिन दोनों की कार्यप्रणाली भिन्न थी।

  • गोखले संवाद, सुधार और संवैधानिक तरीकों में विश्वास रखते थे।
  • तिलक स्वदेशी, बहिष्कार और जनआंदोलन में विश्वास करते थे।

दोनों के बीच कभी-कभी वैचारिक टकराव होता था, लेकिन वे एक-दूसरे का व्यक्तिगत सम्मान बनाए रखते थे। गोखले ने ही तिलक की रिहाई के प्रयासों में मदद की थी जब उन्हें अंग्रेजों ने जेल भेजा था।

शिक्षा के क्षेत्र में योगदान

गोखले यह मानते थे कि बिना शिक्षा के भारत स्वतंत्र नहीं हो सकता। उन्होंने "हंटर कमीशन" और "भारतीय शिक्षा नीति" पर गहन शोध किया। वे चाहते थे कि अंग्रेजी शिक्षा के साथ-साथ भारतीय भाषाओं में भी शिक्षा दी जाए।

मृत्यु और विरासत

19 फरवरी 1915 को केवल 49 वर्ष की आयु में गोखले का निधन हो गया। उनका निधन एक विचारशील और नैतिक नेतृत्व के अंत के रूप में देखा गया। लेकिन उनके विचार, संस्थाएं और शिष्य आज भी उनकी विरासत को जीवित रखते हैं।

प्रमुख विरासतें:

  • महात्मा गांधी में उनके संस्कार और दृष्टि
  • सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी
  • भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की नैतिक नींव

निष्कर्ष

गोपाल कृष्ण गोखले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वैचारिक शिल्पी थे। उन्होंने संघर्ष को नैतिक, बौद्धिक और शांतिपूर्ण दिशा दी। भारत के राजनीतिक इतिहास में उन्होंने 'संवाद और सुधार' की परंपरा को स्थापित किया। उनकी उदारता, शिक्षाप्रेम और सत्यनिष्ठा आज भी सभी भारतीयों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

यदि तिलक स्वतंत्रता संग्राम के "गरजते तूफान" थे, तो गोखले उसकी "शांत अंतरात्मा"।


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