महाराणा प्रताप सिंह (9 मई 1540- 29 जनवरी 1597)

महाराणा प्रताप सिंह (9 मई 1540- 29 जनवरी 1597)


भूमिका

भारतीय इतिहास के पृष्ठों में अनेक वीर पुरुषों ने जन्म लिया, परंतु कुछ ऐसे रहे जो अपने साहस, आत्मबल और स्वतंत्रता प्रेम के कारण युगों-युगों तक अमर हो गए। महाराणा प्रताप ऐसे ही महान पुरुष थे, जिन्होंने मुग़ल सम्राट अकबर जैसे शक्तिशाली शासक के सामने झुकने के बजाय कठिन जीवन और संघर्ष को चुना। वे केवल एक वीर योद्धा ही नहीं, बल्कि स्वतंत्रता, स्वाभिमान और मातृभूमि के रक्षक भी थे। उनका संपूर्ण जीवन राष्ट्रभक्ति, आत्मगौरव और पराक्रम का आदर्श है।

वंश और जन्म

महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 ई. को मेवाड़ के सिसोदिया वंश में कुंभलगढ़ दुर्ग (राजसमंद, राजस्थान) में हुआ था। उनका पूरा नाम प्रथ्वीराज सिंह रखा गया था, जो बाद में प्रताप सिंह और फिर महाराणा प्रताप के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनके पिता राणा उदयसिंह द्वितीय और माता जयवंताबाई थीं। सिसोदिया वंश को क्षत्रिय वंश में सबसे प्रतिष्ठित माना जाता है, जिसने सदैव स्वतंत्रता और धर्म की रक्षा की।

प्रारंभिक शिक्षा और गुण

प्रताप बचपन से ही वीर, साहसी और आत्मनिर्भर थे। वे घुड़सवारी, तलवारबाज़ी, धनुर्विद्या और युद्धकला में दक्ष थे। वे सादा जीवन जीते थे और संघर्षशील स्वभाव रखते थे। जब उनके पिता ने अपने एक अन्य पुत्र जगमल को उत्तराधिकारी घोषित करना चाहा, तो दरबारियों और सामंतों के विरोध पर अंततः प्रताप को गद्दी सौंपी गई। यह इस बात का प्रमाण है कि प्रताप में नेतृत्व, संगठन और नीति की महान क्षमता थी।

महाराणा प्रताप का सिंहासनारोहण

राणा उदयसिंह की मृत्यु के बाद 1572 ई. में महाराणा प्रताप मेवाड़ के राजा बने। उनके समय तक अधिकांश राजपूत राजा मुग़ल सम्राट अकबर की अधीनता स्वीकार कर चुके थे। परंतु प्रताप ने अपने आत्मगौरव को सर्वोपरि मानते हुए कभी अकबर की संप्रभुता को नहीं स्वीकारा। अकबर ने उन्हें कई दूतों के माध्यम से समझाने की कोशिश की — जिनमें राजा टोडरमल, जलाल खाँ और मानसिंह जैसे लोग शामिल थे — परंतु महाराणा प्रताप का उत्तर सदा एक ही रहा: "मातृभूमि के सम्मान के लिए हम जीवन का बलिदान तो दे सकते हैं, पर पराधीनता स्वीकार नहीं कर सकते।"

हल्दीघाटी का युद्ध – स्वतंत्रता का महासंग्राम

18 जून 1576 को मेवाड़ और मुग़ल सेनाओं के बीच हल्दीघाटी नामक स्थान पर भयंकर युद्ध हुआ। यह युद्ध भारत के इतिहास का एक ऐसा अध्याय है, जिसमें साहस और स्वाभिमान की पराकाष्ठा देखी गई। प्रताप की सेना में मुख्य सेनापति हकीम खान सूर, भील नेता पुंजा, झाला मान और दौलत खां जैसे वीर शामिल थे। युद्ध में प्रताप के घोड़े चेतक ने अपनी वीरता दिखाई, जिसने घायल होते हुए भी प्रताप को युद्धभूमि से सुरक्षित निकाला। चेतक की मृत्यु पर स्वयं महाराणा प्रताप की आंखें नम हो गईं।

युद्ध भले ही निर्णायक न रहा हो, परंतु यह संदेश पूरे भारत में फैल गया कि प्रताप जैसे योद्धा अब भी स्वतंत्रता की लौ जलाए हुए हैं।

वनवास और कठिन जीवन

हल्दीघाटी के बाद महाराणा प्रताप ने वर्षों तक वन, पर्वतों और गुफाओं में रहकर गुरिल्ला युद्ध प्रणाली के माध्यम से मुग़लों को परेशान किया। उन्होंने भोजन के अभाव में घास की रोटियाँ तक खाईं, किंतु कभी अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। एक कथा प्रसिद्ध है कि जब उनके बच्चों को भूख से तड़पता देख महारानी ने उन्हें धिक्कारा, तो प्रताप ने ईश्वर से प्रार्थना की — और यही क्षण था जब भामाशाह नामक पटवा व्यापारी ने अपना संपूर्ण धन महाराणा को दान कर दिया। इस सहयोग से प्रताप ने फिर से अपनी सेना संगठित की और स्वतंत्रता की लड़ाई जारी रखी।

भामाशाह और गोगुंदा जैसे सहयोगी

भामाशाह जैसे राष्ट्रप्रेमी सहयोगियों ने महाराणा प्रताप की लड़ाई को जीवित रखा। भामाशाह ने इतना धन दिया जिससे 25,000 सैनिकों की 12 वर्षों तक की जरूरतें पूरी हो सकती थीं। यह सहयोग कोई साधारण घटना नहीं थी, यह उस युग की राष्ट्रनिष्ठ भावना का प्रतीक है।

चावंड की राजधानी और पुनरुद्धार

महाराणा प्रताप ने चावंड को अपनी नई राजधानी बनाया और वहीं से मुग़ल प्रभाव वाले क्षेत्रों को पुनः जीतना शुरू किया। धीरे-धीरे उन्होंने मेवाड़ के अधिकांश भूभाग को स्वतंत्र करा लिया। उन्होंने शासन व्यवस्था, किले, मंदिर और जनजीवन के पुनर्निर्माण में विशेष योगदान दिया।

मृत्यु और उत्तराधिकार

29 जनवरी 1597 को चावंड में महाराणा प्रताप का देहावसान हुआ। मृत्यु के समय उनके अंतिम शब्द थे — "मैंने चित्तौड़ नहीं बचा सका, यह मेरी आत्मा का बोझ रहेगा।" उनके पुत्र अमर सिंह ने बाद में अकबर के उत्तराधिकारी जहांगीर से संधि की, परंतु प्रताप की गरिमा और स्वतंत्रता की छवि को कभी धूमिल नहीं होने दिया।

महाराणा प्रताप की विशेषताएँ

  1. अदम्य साहस – हर परिस्थिति में वीरता।
  2. स्वतंत्रता प्रेम – आत्मगौरव को सर्वोच्च स्थान।
  3. न्यायप्रियता – अपने राज्य में धर्म, जाति और वर्ग के आधार पर कभी भेदभाव नहीं।
  4. प्रजावत्सल राजा – प्रजा के कष्टों को स्वयं झेला।
  5. धर्मरक्षक – अपने राज्य में हिंदू, मुस्लिम, भील सभी को समान अधिकार।

लोकस्मृति और सम्मान

  • राजस्थान सरकार द्वारा कई स्मारक निर्मित किए गए हैं, जैसे कि महाराणा प्रताप स्मारक (मोती मगरी, उदयपुर)
  • भारतीय डाक विभाग ने उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया है।
  • भारत की कई शिक्षण संस्थाओं, मार्गों और योजनाओं के नाम उनके नाम पर रखे गए हैं।
  • 2007 में भारत सरकार ने महाराणा प्रताप राष्ट्रीय सम्मान शुरू किया।

निष्कर्ष

महाराणा प्रताप न केवल एक महान योद्धा थे, बल्कि एक सिद्धांतवादी, आत्मगौरव से युक्त और लोकसेवा में जीवन समर्पित करने वाले आदर्श शासक थे। उनका जीवन इस बात का प्रतीक है कि राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए कोई भी त्याग बड़ा नहीं होता। आज की पीढ़ी उनके जीवन से प्रेरणा लेकर आत्मसम्मान, स्वाभिमान और देशप्रेम का अर्थ समझ सकती है।

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