क्रांतिकारी गोपबंधु चौधरी( 8 अगस्त 1893-29 अप्रैल 1958 )
क्रांतिकारी गोपबंधु चौधरी ( 8 अगस्त 1893- 29 अप्रैल 1958)
परिचय
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान योद्धाओं में गोपबंधु चौधरी (Gopabandhu Choudhury) का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है। वे न केवल एक स्वतंत्रता सेनानी थे, बल्कि एक समाजसेवी, गांधीवादी विचारधारा के अनुयायी और ओड़िशा के महान सपूत भी थे। उनका जीवन संघर्ष, त्याग और सेवा का प्रतीक है। उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी को त्यागकर देशसेवा को अपना ध्येय बनाया।
प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा
गोपबंधु चौधरी का जन्म 8 अगस्त 1893 को ओड़िशा के कट्टक जिले के सतिहाटी गांव में हुआ था। वे एक प्रतिष्ठित जमींदार परिवार से संबंधित थे। उनके पिता का नाम गोपीनाथ चौधरी था। शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने उल्लेखनीय प्रगति की और कलकत्ता विश्वविद्यालय से विज्ञान में स्नातक किया। इसके पश्चात वे पटना विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री लेकर सिविल सेवा में सम्मिलित हुए।
सरकारी सेवा और उसका त्याग
गोपबंधु चौधरी ने ब्रिटिश शासन के अधीन डिप्टी मैजिस्ट्रेट की नौकरी प्राप्त की, जो उस समय एक सम्मानजनक और सुरक्षित पद था। किंतु जब देश में स्वतंत्रता संग्राम की लहर उठी और गांधीजी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन आरंभ हुआ, तब चौधरी जी ने 1921 में अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। यह कदम उनके भीतर राष्ट्रप्रेम और स्वतंत्रता के लिए उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
राजनीतिक योगदान
नौकरी छोड़ने के बाद गोपबंधु चौधरी पूर्णतः स्वतंत्रता संग्राम में समर्पित हो गए। वे गांधीजी के विचारों से अत्यधिक प्रभावित थे। उन्होंने असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की। वे अनेक बार जेल गए और यातनाएं सहीं, किंतु राष्ट्रसेवा से पीछे नहीं हटे।
उनका विशेष योगदान ओड़िशा में कांग्रेस संगठन को मजबूत करने में रहा। वे ओड़िशा प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी बने और जनता को आंदोलनों से जोड़ने में उन्होंने निर्णायक भूमिका निभाई।
समाजसेवा और बस्ती निर्माण
स्वतंत्रता संग्राम के अतिरिक्त गोपबंधु चौधरी समाज सुधार के भी अग्रदूत थे। उन्होंने जातिवाद, अशिक्षा और छुआछूत जैसी कुरीतियों के विरुद्ध कार्य किया। 1934 में गांधीजी के कहने पर उन्होंने 'सेवा समाज' की स्थापना की, जिसके माध्यम से वे ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वच्छता के लिए काम करने लगे।
उन्होंने ओड़िशा के कटक जिले के रामचंद्रपुर गांव को एक आदर्श ग्राम के रूप में विकसित करने का प्रयास किया। उनका उद्देश्य था कि गांव आत्मनिर्भर बनें और सामाजिक न्याय की भावना वहां विकसित हो।
स्वतंत्रता के बाद का जीवन
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गोपबंधु चौधरी ने सत्ता की राजनीति से दूर रहकर समाजसेवा को अपना मार्ग बनाया। उन्होंने गांधीवादी संस्थाओं को मजबूत किया और युवाओं को ग्राम सेवा की प्रेरणा दी। वे आजीवन खादी पहनते थे और स्वदेशी के प्रचारक बने रहे।
मृत्यु और विरासत
गोपबंधु चौधरी का निधन 29 अप्रैल 1958 को हुआ। वे सच्चे अर्थों में गांधीवाद के अनुयायी और लोकसेवा के प्रतीक थे। ओड़िशा में उनके नाम पर कई विद्यालय, संस्थान और सड़कें आज भी उनके योगदान की गवाही देते हैं।
निष्कर्ष
गोपबंधु चौधरी का जीवन स्वतंत्रता संग्राम, त्याग, और सेवा का आदर्श उदाहरण है। उन्होंने जीवन भर निस्वार्थ भाव से समाज और राष्ट्र के लिए कार्य किया। आज जब हम स्वतंत्र भारत में सांस ले रहे हैं, तब हमें उनके योगदान को स्मरण कर उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। वे उन गिने-चुने क्रांतिकारियों में से हैं जिन्होंने सत्ता नहीं, सेवा को चुना।
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