आलूरी सीताराम राजू: आदिवासी जननायक और स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रांतिकारी(4 जुलाई 1897- 7 मई 1924)
आलूरी सीताराम राजू: आदिवासी जननायक और स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रांतिकारी(4 जुलाई 1897- 7 मई 1924)
जन्म, परिवार और प्रारंभिक जीवन
आलूरी सीताराम राजू का जन्म 4 जुलाई 1897 को आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम जिले के एक छोटे से गाँव मोगल्लू (कुछ स्रोतों के अनुसार पांडरंगी) में हुआ था। उनका परिवार एक परंपरागत तेलुगु ब्राह्मण परिवार था। पिता का नाम वेंकटराम राजू और माता का नाम सुर्यनारायणी था। बचपन में ही पिता का निधन हो जाने से उनका जीवन संघर्षपूर्ण हो गया।
उन्होंने प्राथमिक शिक्षा मद्रास, राजमुंदरी और विशाखापत्तनम में प्राप्त की, लेकिन वे औपचारिक शिक्षा में अधिक रुचि नहीं रखते थे। युवावस्था में वे आध्यात्मिक प्रवृत्ति के हो गए और उन्होंने संतों, योगियों और क्रांतिकारियों के संपर्क में रहकर अपने विचारों को आकार दिया।
आध्यात्मिक और क्रांतिकारी चेतना का संगम
राजू ने भारतीय शास्त्रों, उपनिषदों, रामायण और भगवद्गीता का गहन अध्ययन किया। इसके साथ ही, वे गांधीजी के विचारों से भी प्रभावित हुए। उन्होंने अंग्रेजों के अन्यायपूर्ण शासन और आदिवासियों पर हो रहे अत्याचारों को देखकर निर्णय लिया कि अब केवल अहिंसा से कुछ नहीं होगा – जरूरत है सशस्त्र विद्रोह की।
उन्होंने जंगलों और पहाड़ों में रहने वाले आदिवासी समुदायों को संगठित किया, खासकर कोया जनजाति को, और उन्हें अन्याय के विरुद्ध लड़ने के लिए प्रशिक्षित किया। वे उनके ‘गुरु’ और नेता दोनों बन गए।
रामो पाटी विद्रोह (1922–1924): एक संगठित आदिवासी क्रांति
विद्रोह के कारण:
- ब्रिटिश वन अधिनियम: इस अधिनियम ने आदिवासियों के जंगल में जाने, लकड़ी काटने, खेती करने और शिकार करने तक पर प्रतिबंध लगा दिया।
- अन्यायपूर्ण कर प्रणाली: आदिवासियों को भूमि कर, पशु कर आदि जैसे करों से दबाया गया।
- शोषण और दमन: ब्रिटिश सिपाही व स्थानीय जमिंदार आदिवासी जनता का आर्थिक व शारीरिक शोषण करते थे।
विद्रोह की रणनीति:
सीताराम राजू ने गुरिल्ला युद्धनीति अपनाई। उन्होंने जंगलों में रहकर पुलिस थानों पर छापेमारी की, हथियार लूटे, और अधिकारियों को चेतावनी दी कि आदिवासियों पर अत्याचार बंद करें।
- उन्होंने चिंटापल्ली, राजवोमंगी, और क्रिष्णदेवीपेटा जैसे स्थानों पर ब्रिटिश चौकियों पर हमले किए।
- वे बेहद साहसी थे और कहा जाता है कि वह जंगलों में इतनी तेजी से चलते थे कि कोई उन्हें पकड़ नहीं सकता था।
एक रहस्यमयी और करिश्माई नेता
राजू को लोग "भगवान का अवतार" मानने लगे थे। वे भविष्यवाणियाँ करते थे, आयुर्वेदिक औषधियों का ज्ञान था, और वे बेहद अनुशासित जीवन जीते थे।
उनकी वेशभूषा सामान्य थी: वे धोती पहनते थे, कंधे पर कमंडल और कमान रखते थे, और उनके बाल लंबे थे।
शहादत और विरासत
ब्रिटिश सरकार राजू से बेहद डर गई थी। उन्होंने राजू की जानकारी देने पर ₹10,000 का इनाम घोषित किया।
आख़िरकार, एक गुप्त सूचना पर अंग्रेजों ने उन्हें धोखे से पकड़ लिया और 7 मई 1924 को कॉयापोसी जंगल में उन्हें पेड़ से बाँधकर गोली मार दी गई। उस समय वे मात्र 27 वर्ष के थे।
उनकी शहादत का प्रभाव:
- आदिवासी क्षेत्रों में विद्रोह की लहर और तेज हो गई।
- भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को दक्षिण भारत में और अधिक ऊर्जा मिली।
- आज भी आदिवासी समुदाय उन्हें “मण्यम वीरुडु” (जंगल का वीर) कहकर श्रद्धा से याद करते हैं।
उनकी स्मृति में:
- आलूरी सीताराम राजू स्मारक: लम्बीपड़ी (आंध्र प्रदेश) में उनकी स्मृति में भव्य स्मारक बनाया गया है।
- भारतीय डाक टिकट: भारत सरकार ने 1986 में उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया।
- 2022 में भारत सरकार द्वारा उनकी 125वीं जयंती मनाई गई, जिसमें प्रधानमंत्री ने विशेष कार्यक्रमों की घोषणा की।
उनके विचार और आदर्श आज भी प्रासंगिक हैं
- जनजातीय अधिकारों की रक्षा
- समानता और स्वतंत्रता की भावना
- धर्म, सेवा और बलिदान का समन्वय
- संगठित संघर्ष की शक्ति
निष्कर्ष
आलूरी सीताराम राजू उन असाधारण सेनानियों में से एक थे, जिन्होंने अपने जीवन को राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया। उनके बलिदान ने दिखाया कि भारत के कोने-कोने में लोग स्वतंत्रता के लिए तड़प रहे थे, चाहे वे कितने ही दूरस्थ या आदिवासी क्षेत्र में क्यों न रहते हों। उनका जीवन आज भी हमें अन्याय के विरुद्ध लड़ने, संगठित होने, और देशभक्ति के आदर्शों को अपनाने की प्रेरणा देता है।
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