रामधारी सिंह 'दिनकर' (23 सितंबर 1908- 24 अप्रैल 1974)
रामधारी सिंह 'दिनकर' (23 सितंबर 1908- 24 अप्रैल 1974)
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा:
रामधारी सिंह 'दिनकर' का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गाँव में एक सामान्य कृषक परिवार में हुआ। उनके पिता रवि सिंह एक मध्यमवर्गीय किसान थे। दिनकर जब मात्र दो वर्ष के थे, तभी उनके पिता का देहांत हो गया। उनका लालन-पालन अत्यंत संघर्षमय परिस्थितियों में हुआ। माँ ने मेहनत करके बच्चों को पढ़ाया।
प्रारंभिक शिक्षा गांव में हुई और बाद में वे मोकामा हाई स्कूल में पढ़े। आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद उन्होंने 1928 में पटना विश्वविद्यालय से इतिहास, राजनीति विज्ञान और दर्शनशास्त्र में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। यहीं उनके भीतर राष्ट्रभक्ति और सांस्कृतिक चेतना की भावनाएँ तीव्र हुईं।
साहित्यिक युग और प्रवृत्तियाँ:
दिनकर छायावादोत्तर काल के प्रमुख कवि माने जाते हैं। परंतु उनके साहित्य में छायावाद, यथार्थवाद, प्रगतिवाद और राष्ट्रवाद – सभी का समन्वय मिलता है। उन्हें “ओज के कवि”, “राष्ट्रकवि” और “क्रांति के पुरोधा” के रूप में जाना जाता है। उन्होंने हिंदी काव्य को जन-जन की चेतना से जोड़ा।
उनकी साहित्यिक प्रवृत्तियाँ थीं:
ओज और वीर रस की प्रधानता
राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता संग्राम की चेतना
सामाजिक अन्याय के विरुद्ध विद्रोह
धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों का पुनर्पाठ
पौराणिक पात्रों के माध्यम से आधुनिक सन्दर्भों की प्रस्तुति
काव्य की विशेषताएँ:
(क) रश्मिरथी –
इस महाकाव्य में कर्ण की महत्ता, उसकी पीड़ा, आत्मगौरव और नियति के संघर्ष को अत्यंत मार्मिकता और ओज के साथ प्रस्तुत किया गया है।
प्रसिद्ध पंक्तियाँ:
“जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध”
“विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है,
सूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते।”
(ख) कुरुक्षेत्र –
महाभारत युद्ध की पृष्ठभूमि में यह कविता धर्म, शांति, न्याय और शक्ति की परिभाषा को नए ढंग से परिभाषित करती है।
मुख्य संदेश: – क्या युद्ध आवश्यक है? क्या अहिंसा सर्वोपरि है या न्याय के लिए हिंसा भी धर्म है?
(ग) हुंकार –
इस संग्रह की कविताएं ब्रिटिश राज के विरुद्ध क्रांति की घोषणा हैं। दिनकर ने जन-जन को ललकारा और स्वतंत्रता संग्राम में प्रेरणा दी।
प्रसिद्ध पंक्ति:
“सीना किसी का हो, क्या फ़र्क, पड़ी हो गोली भारत की हो!”
गद्य साहित्य में योगदान:
संस्कृति के चार अध्याय (1956):
यह दिनकर की अत्यंत प्रसिद्ध गद्य रचना है जिसमें उन्होंने भारत की सांस्कृतिक यात्रा को चार अध्यायों में विभाजित करते हुए यह सिद्ध किया कि भारत की संस्कृति सहिष्णुता, समन्वय और विविधता में एकता की संस्कृति है।
अर्धनारीश्वर:
यह निबंध संग्रह स्त्री-पुरुष के संबंध, समाज में नारी की भूमिका, पितृसत्ता और लैंगिक न्याय जैसे विषयों पर गहन चिंतन प्रस्तुत करता है।
भारत की सांस्कृतिक एकता
इस पुस्तक में उन्होंने देश की एकता को जाति, भाषा, धर्म और प्रांतों से ऊपर बताया।
राजनीतिक जीवन और विचारधारा:
रामधारी सिंह दिनकर ने स्वतंत्रता संग्राम के समय अपने विचारों और कविताओं से जनजागरण किया। वे गांधी, सुभाष, नेहरू, लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं से प्रभावित थे, परंतु वे किसी एक विचारधारा के बंधन में नहीं बंधे। उनका स्वाभाविक झुकाव समाजवाद और राष्ट्रवाद की ओर रहा।
वे स्वतंत्र भारत में राज्यसभा के सदस्य (1952-1964) रहे।
उन्हें भारत सरकार ने हिंदी सलाहकार के रूप में नियुक्त किया।
संसद में दिए गए उनके भाषण अत्यंत विद्वत्तापूर्ण और ओजपूर्ण माने जाते हैं।
पुरस्कार और सम्मान:
पद्म भूषण (1959)
साहित्य अकादमी पुरस्कार (1959) – संस्कृति के चार अध्याय के लिए
भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार (1972) – उर्वशी के लिए
विश्वविद्यालयों द्वारा मानद उपाधियाँ
राष्ट्रकवि की उपाधि उन्हें जनमानस और हिंदी साहित्य ने दी
दिनकर की आलोचनात्मक दृष्टि:
दिनकर एक आलोचक भी थे जिन्होंने हिंदी साहित्य, भारतीय इतिहास, संस्कृति और राजनीति को नई दृष्टि दी। उन्होंने अपनी रचनाओं में भारतीयता को गहराई से आत्मसात किया।
उनका मानना था कि –
“यदि राष्ट्र को सशक्त बनाना है तो साहित्य और संस्कृति को जन-जन तक पहुंचाना होगा।”
निधन और स्मृति:
रामधारी सिंह दिनकर का निधन 24 अप्रैल 1974 को चेन्नई (मद्रास) में हुआ। उनके निधन के बाद देशभर में शोक व्यक्त किया गया।
पटना में “दिनकर स्मृति संस्थान”
दिल्ली में “दिनकर भवन”
साहित्य अकादमी और भारत सरकार द्वारा स्मृति समारोह आयोजित किए जाते हैं।
रामधारी सिंह दिनकर न केवल एक कवि थे, वे भारतीय आत्मा की आवाज़ थे। उन्होंने साहित्य को जनसामान्य से जोड़ा और उसे क्रांति, चेतना और प्रेम का माध्यम बनाया। उनका साहित्य भारतीय संस्कृति, वीरता और न्याय के मूल्यों का जीवंत दस्तावेज़ है। आज भी उनकी कविताएं राष्ट्र को प्रेरणा देती हैं।
वे साहित्य के योद्धा थे – कलम उनके लिए शस्त्र था और कविता उनका रण-घोष।
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