उदयनाचार्य: न्याय दर्शन के प्रकाश स्तंभ
उदयनाचार्य: न्याय दर्शन के प्रकाश स्तंभ
विस्तारित जीवन परिचय और बौद्धिक पृष्ठभूमि
उदयनाचार्य का जन्म मिथिला में हुआ, जो उस समय तर्कशास्त्र, वेद-वेदांग, न्याय और मीमांसा का वैश्विक केंद्र था। मिथिला विश्वविद्यालय और उसके विद्वत मंडल भारतीय बौद्धिक परंपरा की रीढ़ थे। उदयनाचार्य ने उसी महान परंपरा में शिक्षा ग्रहण की, जहाँ वाचस्पति मिश्र, उदयन भट्ट, और गंगेश उपाध्याय जैसे महान विद्वानों का प्रभाव था।
उनका समय भारत में बौद्ध धर्म के विकेन्द्रित होते प्रभाव का युग था। नालंदा और विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों में बौद्ध दर्शन की प्रबलता थी। उदयनाचार्य ने उसी समय न्याय-वैशेषिक दर्शन के माध्यम से वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना का कार्य प्रारंभ किया।
बौद्ध दर्शन का सैद्धांतिक खंडन
उदयनाचार्य ने बौद्धों के तीन प्रमुख सिद्धांतों का तार्किक खंडन किया:
क्षणिकवाद (Momentariness)
बौद्धों का मत था कि प्रत्येक वस्तु क्षणभंगुर है, अर्थात् हर क्षण वह नष्ट हो जाती है। उदयनाचार्य ने इसके विरोध में कहा कि यदि आत्मा भी क्षणिक है तो ज्ञान की निरंतरता (स्मृति, अनुभव, आदि) कैसे संभव होगी? उन्होंने स्मृति, कर्मफल, और ज्ञान को आत्मा की स्थायित्व का प्रमाण बताया।
अनात्मवाद (No-soul Theory)
बौद्धों ने आत्मा के अस्तित्व को नकारा था। उदयनाचार्य ने आत्मा के अस्तित्व को ‘ज्ञाता’ और ‘कर्म-भोक्ता’ के रूप में प्रमाणित किया। “मैं जानता हूँ”, “मुझे स्मरण है” जैसे अनुभवों से यह सिद्ध होता है कि कोई स्थायी सत्ता (आत्मा) अवश्य है।
प्रत्युत्पन्नवाद (Immediate Causation)
बौद्धों के अनुसार प्रत्येक कारण तुरंत ही फल उत्पन्न करता है। उदयनाचार्य ने कारण और कार्य के मध्य समयान्तराल को स्थापित किया और कहा कि अन्यथा सभी घटनाएँ एक साथ घटित होतीं, जो अनुभव के प्रतिकूल है।
न्यायकुसुमांजलि: एक दार्शनिक महाकाव्य
‘न्यायकुसुमांजलि’ उदयनाचार्य की सबसे प्रसिद्ध रचना है। यह पाँच स्तबकों (Chapters) में विभाजित है और इसका उद्देश्य ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करना है। इस ग्रंथ में वे कहते हैं:
"नास्तिकानां कुतः प्रमाणम्?"
"नास्तिक के लिए प्रमाण का कोई मूल्य नहीं, जब तक वह ईश्वर को न माने।"
उदयनाचार्य ईश्वर के अस्तित्व को निम्नलिखित प्रमुख तर्कों से सिद्ध करते हैं:
कार्यात् —
इस सृष्टि को किसी कर्ता की आवश्यकता है, जैसे मकान को बनाने वाला होता है, वैसे ही जगत का भी कोई निर्माता होना चाहिए।
आर्थात् —
जीवों के कर्म के फल एक न्यायप्रिय विवेकपूर्ण सत्ता के बिना कैसे मिलेंगे?
श्रुतेः —
वेद, जो अपौरुषेय और प्रमाण माने जाते हैं, उनमें ईश्वर का वर्णन स्पष्ट है।
समवायिनः —
कार्य-कारण के संबंधों की व्याख्या के लिए एक नियामक सत्ता की आवश्यकता होती है।
पुरुषार्थसिद्ध्यर्थम् —
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति केवल एक नियमबद्ध ब्रह्मांड व्यवस्था में ही संभव है।
तार्किक प्रणाली (Epistemology)
उदयनाचार्य के अनुसार ज्ञान की उत्पत्ति और वैधता को समझना दर्शन का मूल उद्देश्य है। उन्होंने न्याय दर्शन की निम्न प्रमाण प्रणालियों को विस्तार से विवेचित किया:
- प्रत्यक्ष – इन्द्रियों के माध्यम से हुआ अनुभव
- अनुमान – तर्क से प्राप्त ज्ञान
- उपमान – उदाहरण या तुलनात्मक ज्ञान
- शब्द – शास्त्र या प्रामाणिक वाणी से प्राप्त ज्ञान
इन सभी प्रमाणों को उन्होंने बौद्धों के प्रत्यक्ष-प्रधान प्रमाणवाद के ऊपर स्थापित किया।
उत्तरवर्ती प्रभाव
उदयनाचार्य की विचारधारा का प्रभाव अनेक दार्शनिकों पर पड़ा। विशेषकर निम्न नाम उल्लेखनीय हैं:
- गंगेश उपाध्याय – नव्य न्याय दर्शन के प्रवर्तक, जिन्होंने उदयनाचार्य के तर्कों को और अधिक सुसंगठित किया।
- रघुनाथ शिरोमणि – तार्किक शैली और शब्दशक्ति के क्षेत्र में योगदान दिया।
- विद्याचक्रवर्ती – बौद्ध तर्कों के खंडन में उदयनाचार्य की प्रणाली को अपनाया।
समकालीन प्रासंगिकता
उदयनाचार्य का दर्शन आज भी अत्यंत प्रासंगिक है:
- उनके तर्कप्रधान धर्मवाद ने यह सिद्ध किया कि धर्म केवल श्रद्धा नहीं, तर्क और विवेक की कसौटी पर भी खरा उतर सकता है।
- आज के वैज्ञानिक और तार्किक युग में, जहाँ हर बात का प्रमाण माँगा जाता है, वहाँ उदयनाचार्य की प्रमाण प्रणाली और ईश्वर-सिद्धि के तर्क अत्यंत उपयोगी सिद्ध होते हैं।
- धार्मिक सहिष्णुता के युग में भी, उनका दर्शन आक्रामक खंडन न करते हुए तर्क द्वारा उत्तर देने की परंपरा को स्थापित करता है।
निष्कर्ष
उदयनाचार्य केवल दार्शनिक नहीं थे, वे भारतीय संस्कृति के वैचारिक योद्धा थे। उन्होंने न्याय-दर्शन को पुनर्जीवित किया, वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना की, और तर्क तथा विवेक के आधार पर बौद्धों के प्रभावशाली विचारों का खंडन किया। उनका कार्य आज भी दर्शन, धर्म और तर्क की सीमाओं को समझने के लिए अनुकरणीय है।
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