मंडन मिश्र (भारतीय दार्शनिक परंपरा में अद्वैत वेदान्त के मूर्धन्य विद्वान)

मंडन मिश्र 
(भारतीय दार्शनिक परंपरा में अद्वैत वेदान्त के मूर्धन्य विद्वान)

परिचय

भारतीय दार्शनिक परंपरा में मंडन मिश्र का स्थान अत्यंत विशिष्ट और सम्माननीय है। वे न केवल पूर्व मीमांसा परंपरा के गहन ज्ञाता थे, बल्कि उन्होंने अद्वैत वेदान्त के विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 8वीं–9वीं शताब्दी के इस महान विद्वान का योगदान भारतीय ज्ञान परंपरा के लिए सेतु के समान है, जो कर्मकांड आधारित मीमांसा दर्शन से ज्ञानप्रधान अद्वैत वेदान्त की ओर बौद्धिक संक्रमण को दर्शाता है। उनकी रचना ब्रह्मसिद्धि आज भी अद्वैत वेदान्त की आधारशिला मानी जाती है।

जीवन परिचय

मंडन मिश्र का जन्म एक विद्वान ब्राह्मण कुल में हुआ था। मिथिला क्षेत्र—जो उस समय भारतीय बौद्धिक और सांस्कृतिक चेतना का केंद्र था—को उनका जन्मस्थल माना जाता है। कुछ विद्वान इन्हें कौशाम्बी से भी जोड़ते हैं। वे अपने समय के सर्वाधिक योग्य और तर्कशील आचार्यों में गिने जाते थे।

उनकी पत्नी भारती देवी स्वयं विदुषी थीं और उन्हें शास्त्रार्थ में निर्णायक की भूमिका निभाते हुए प्रसिद्धि प्राप्त हुई। शंकराचार्य से उनके शास्त्रार्थ की कथा आज भी भारत की बौद्धिक परंपरा में स्मरणीय है। पराजय के उपरांत, मंडन मिश्र ने संन्यास लिया और शंकराचार्य के शिष्य बने। कुछ परंपराएँ मानती हैं कि उन्होंने सुरेश्वराचार्य नाम से नया जीवन शुरू किया।

दार्शनिक पृष्ठभूमि और विकास

1. पूर्व मीमांसा परंपरा में आरंभ

मंडन मिश्र आरंभ में पूर्व मीमांसा दर्शन के अनुयायी थे। यह दर्शन वेदों के कर्मकांड भाग पर आधारित था और मोक्ष को विधिपूर्वक कर्मों की निरंतरता से प्राप्त होने वाला फल मानता था। मंडन मिश्र ने इस परंपरा में रहकर अनेक कर्मकांडों की तात्त्विक और युक्तिपूर्ण व्याख्या की।

2. अद्वैत वेदान्त की ओर प्रवृत्ति

परंतु, कालांतर में मंडन मिश्र का झुकाव शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित अद्वैत वेदान्त की ओर हुआ। उनके ग्रंथ ब्रह्मसिद्धि में यह स्पष्ट है कि वे मोक्ष को केवल ज्ञान के माध्यम से ही संभव मानते हैं। वे मानते हैं कि आत्मा और ब्रह्म के बीच कोई द्वैत नहीं है, और ज्ञान के उदय के साथ ही अविद्या का नाश होता है।

शंकराचार्य से संवाद और परिवर्तन

शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच हुआ ऐतिहासिक शास्त्रार्थ भारतीय बौद्धिक परंपरा का स्वर्णिम अध्याय है। यह विवाद केवल दो विद्वानों का नहीं था, बल्कि कर्मप्रधान मीमांसा और ज्ञानप्रधान वेदान्त के बीच का संघर्ष था।

शास्त्रार्थ में निर्णायक बनीं भारती देवी, जिन्होंने यह तर्क दिया कि शास्त्रार्थ की पूर्णता तभी होगी जब वे गृहस्थ धर्म और काम के विषय में भी शंकराचार्य से तर्क करें। शंकराचार्य ने इसके लिए समय मांगा और जीवन का अनुभव प्राप्त करने हेतु परकाय प्रवेश (किसी अन्य शरीर में प्रवेश) किया। तत्पश्चात, संपूर्ण शास्त्रार्थ के बाद मंडन मिश्र ने शंकराचार्य की श्रेष्ठता स्वीकार कर उन्हें गुरु रूप में स्वीकार किया।

प्रमुख कृतियाँ

1. ब्रह्मसिद्धि

यह ग्रंथ अद्वैत वेदान्त के क्षेत्र में मंडन मिश्र की सर्वोत्तम रचना है। यह ज्ञान-कर्म विवाद, मोक्ष-साधन, ब्रह्म की स्वयंसिद्धता, अविद्या और मायावाद, श्रुति और युक्ति का संतुलन आदि विषयों पर विस्तृत चर्चा करता है।

मुख्य विषय-वस्तु:

  • आत्मा का स्वरूप – आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है।
  • ब्रह्म की स्वयंसिद्धता – ब्रह्म को प्रमाण से नहीं, बल्कि उसके बिना किसी भी प्रमाण की सत्ता असंभव है।
  • ज्ञान और मोक्ष – मोक्ष का साधन केवल ज्ञान है, कर्म नहीं।
  • मिथ्यात्व – जगत की सत्ता को सापेक्ष और अविद्याजन्य माना गया है।

2. मीमांसा विषयक ग्रंथ

यद्यपि उनके मीमांसा संबंधी अन्य ग्रंथ अब उपलब्ध नहीं हैं, परंतु उनके दार्शनिक शिल्प में मीमांसा की गहरी छाया है, विशेषकर युक्ति, प्रमाण और तर्क की पद्धति में।

दार्शनिक योगदान

1. अद्वैत वेदान्त का बौद्धिक परिष्कार

मंडन मिश्र ने शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन को एक तार्किक आधार प्रदान किया। उन्होंने शुद्ध ज्ञान को ही मोक्ष का कारण बताया और इस प्रक्रिया में वैदिक कर्मों की सीमाओं को स्पष्ट किया।

2. ज्ञान-कर्म विवेचन

वे कर्म को साधक नहीं, केवल एक प्रारंभिक शुद्धिकरण का साधन मानते हैं। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि ज्ञान और कर्म दोनों का संग नहीं, बल्कि केवल ज्ञान ही अंतिम साधन है।

3. परंपरा और नव्यता का समन्वय

मंडन मिश्र ने अपने दर्शन में परंपरा का सम्मान करते हुए नूतन दृष्टिकोण अपनाया। उन्होंने श्रद्धा और तर्क, दोनों का संतुलन बनाए रखा।

विवाद और विद्वत् मतभेद

सुरेश्वराचार्य और मंडन मिश्र: एक ही या भिन्न?

  • पारंपरिक दृष्टिकोण मानता है कि मंडन मिश्र ने संन्यास लेकर सुरेश्वराचार्य नाम धारण किया और शंकराचार्य के प्रमुख शिष्य बने।
  • परंतु कुछ आधुनिक विद्वान (जैसे पॉल हैक, एल.एच. जोश) मानते हैं कि इन दोनों के विचारों में पर्याप्त अंतर है – विशेषकर कर्म की भूमिका को लेकर। सुरेश्वर ने कर्म को अधिक महत्व दिया है।

फिर भी, दोनों के विचार अद्वैत के भीतर ही आते हैं और भिन्न मतों की व्याख्या उस दर्शन की जीवंतता का प्रमाण है।

मंडन मिश्र का प्रभाव और विरासत

  • अद्वैत वेदान्त की गहराई और तार्किक स्पष्टता में मंडन मिश्र का योगदान अमूल्य है।
  • उन्होंने शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन को एक सुसंगत दार्शनिक प्रणाली के रूप में प्रस्तुत करने में सहयोग किया।
  • उनके विचारों का प्रभाव उत्तरवर्ती अद्वैत आचार्यों जैसे वाचस्पति मिश्र, विमलानंद, प्रभाकर आदि पर पड़ा।

निष्कर्ष

मंडन मिश्र भारतीय दार्शनिक परंपरा के उन विरले आचार्यों में हैं, जिन्होंने दो महान दर्शनों – मीमांसा और वेदान्त – के मध्य एक सेतु का कार्य किया। उनका दर्शन न केवल तर्कप्रधान है, बल्कि अनुभव की गहराई से भी ओतप्रोत है। उनकी कृति ब्रह्मसिद्धि आज भी अद्वैत वेदान्त के गंभीर अध्येताओं के लिए पथप्रदर्शक है। वे उन महान भारतीय मनीषियों में हैं, जिन्होंने परंपरा, तर्क और आत्मबोध के संतुलन से भारतीय दर्शन की उज्ज्वल धारा को गहराई प्रदान की।


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