याज्ञवल्क्य: वैदिक भारत के महान ऋषि, दार्शनिक और न्यायशास्त्रज्ञ
याज्ञवल्क्य: वैदिक भारत के महान ऋषि, दार्शनिक और न्यायशास्त्रज्ञ
प्रस्तावना
भारतीय ऋषिपरंपरा में याज्ञवल्क्य का स्थान अत्यंत उच्च है। वे वैदिक युग के महानतम मनीषियों में से एक माने जाते हैं जिन्होंने ज्ञान, दर्शन और धर्मशास्त्र के क्षेत्रों में अनुपम योगदान दिया। वे न केवल शुक्ल यजुर्वेद के मुख्य प्रवर्तक थे, बल्कि बृहदारण्यकोपनिषद् के महान उपदेशक, गार्गी और मैत्रेयी जैसे विदुषियों के संवाददाता तथा धर्मसूत्र और स्मृतिकार के रूप में भी प्रसिद्ध हैं। उनका चिंतन आज भी भारतीय दर्शन और विधि-व्यवस्था का आधार स्तंभ है, जो हमें आत्मा के गूढ़ रहस्यों से लेकर सामाजिक न्याय तक के सिद्धांतों से परिचित कराता है।
जीवन परिचय: मिथिला के ज्ञान पुंज
जन्मकाल: याज्ञवल्क्य का जन्मकाल अनुमानतः
ईसा पूर्व 7वीं-8वीं शताब्दी के आस-पास माना जाता है, जो उन्हें उपनिषदीय काल के प्रमुख विचारकों में स्थापित करता है।
स्थान:
उनका जन्म और जीवन का प्रमुख भाग मिथिला (वर्तमान बिहार राज्य में) में व्यतीत हुआ, जो उस समय ज्ञान और दर्शन का एक प्रमुख केंद्र था।
गुरु:
उन्होंने ऋषि वाजसनेयी से शिक्षा ग्रहण की। उन्हीं के नाम पर यजुर्वेद की एक महत्वपूर्ण शाखा "वाजसनेयी संहिता" प्रसिद्ध हुई, जिसमें याज्ञवल्क्य का योगदान सर्वोपरि है।
गोत्र:
वे वाजसनेयी गोत्र से संबंधित थे।
याज्ञवल्क्य ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा के बाद वेदों का गहन अध्ययन किया और विशेषकर यजुर्वेद की "शुक्ल यजुर्वेद" शाखा की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे अपने कठोर तप, असाधारण वाग्पटुता (भाषण देने की कला), और उच्च दार्शनिक चिंतन के लिए सुविख्यात रहे। उन्होंने न केवल मौखिक परंपराओं को जीवित रखा, बल्कि उन्हें व्यवस्थित कर ग्रंथों का रूप भी प्रदान किया।
याज्ञवल्क्य की दार्शनिक दृष्टि: आत्मा, ब्रह्म और मोक्ष का अन्वेषण
याज्ञवल्क्य को उपनिषदों के सर्वश्रेष्ठ दार्शनिकों में माना जाता है। बृहदारण्यक उपनिषद् में उनके संवाद आत्मा, ब्रह्म, मोक्ष और कर्म के गूढ़ रहस्यों को अत्यंत वैज्ञानिक और तार्किक शैली में उद्घाटित करते हैं। उनकी दार्शनिक दृष्टि अद्वैत वेदांत की नींव मानी जाती है।
आत्मा और ब्रह्म की अवधारणा:
याज्ञवल्क्य के अनुसार, "आत्मा ही ब्रह्म है। वही इस समस्त विश्व का सार है।" यह उनके प्रसिद्ध महावाक्य "अहम् ब्रह्मास्मि" (मैं ब्रह्म हूँ) में मुखर होता है, जो बृहदारण्यक उपनिषद् का एक केंद्रीय विचार है। वे यह स्थापित करते हैं कि व्यष्टि (व्यक्तिगत आत्मा) और समष्टि (सार्वभौमिक ब्रह्म) में कोई मौलिक भेद नहीं है। मोक्ष की प्राप्ति इसी अभेद ज्ञान से संभव है।
गार्गी संवाद: स्त्री-ज्ञान का सम्मान
याज्ञवल्क्य और विदुषी गार्गी वाचक्नवी के बीच हुआ दार्शनिक संवाद वैदिक युग में स्त्री-शिक्षा और उनके बौद्धिक योगदान का एक अनुपम उदाहरण है। गार्गी ने याज्ञवल्क्य से ब्रह्म के स्वरूप पर अत्यंत तीक्ष्ण और गूढ़ प्रश्न पूछे, जिससे दार्शनिक वाद-विवाद का उच्चतर स्तर स्थापित हुआ। याज्ञवल्क्य ने धैर्यपूर्वक उत्तर देते हुए कहा: "यह संसार 'अक्षर' (ब्रह्म) पर टिका है, जो न देखता है, न देखा जा सकता है, न सुना जाता है, न सुना जा सकता है, न सोचा जाता है, न सोचा जा सकता है।" यह संवाद दर्शाता है कि याज्ञवल्क्य ने ज्ञान प्राप्ति में लिंगभेद को कोई महत्व नहीं दिया।
मैत्रेयी संवाद: प्रियता का आंतरिक स्रोत
अपनी पत्नी मैत्रेयी से संवाद करते हुए याज्ञवल्क्य ने वैराग्य और आत्मज्ञान की शिक्षा दी। उन्होंने कहा— "न वै अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियो भवति, आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियम् भवति।" (कोई वस्तु या व्यक्ति अपने कारण नहीं, आत्मा की कामना के कारण प्रिय होता है।) उन्होंने समझाया कि "स्त्री हो या पुरुष, आत्मा के बिना कोई सुख नहीं। आत्मा की प्राप्ति ही परम सुख है।" यह संवाद सांसारिक आसक्तियों से ऊपर उठकर आत्मज्ञान की ओर बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करता है।
साहित्यिक योगदान: ज्ञान का विस्तृत फलक
याज्ञवल्क्य का साहित्यिक योगदान अत्यंत विशाल और बहुआयामी है, जिसने भारतीय ज्ञान-परंपरा को एक नई दिशा दी।
* बृहदारण्यक उपनिषद् (Brhadaranyaka Upanishad):
उपनिषदों में यह सबसे बड़ा और दार्शनिक रूप से सर्वाधिक समृद्ध ग्रंथ है। इसमें याज्ञवल्क्य के संवाद मुख्य रूप से वर्णित हैं, जो आत्मा, ब्रह्म, कर्म और मोक्ष के सिद्धांतों का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। इसे अद्वैत वेदांत के आधारभूत ग्रंथों में से एक माना जाता है।
* शुक्ल यजुर्वेद (Vajasaneyi Samhita):
याज्ञवल्क्य को शुक्ल यजुर्वेद का मुख्य प्रवर्तक माना जाता है। पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार, जब उनके गुरु वैशंपायन ने उनसे क्रोधित होकर दी गई विद्या वापस ले ली, तब उन्होंने सूर्य देवता की घोर तपस्या की और उनसे नए सिरे से शुक्ल यजुर्वेद की विद्या प्राप्त की। यह संहिता वैदिक कर्मकांड की विधियों, मंत्रों और यज्ञ संबंधी अनुष्ठानों का प्रामाणिक स्रोत है। इसे 'वाजसनेयी संहिता' के नाम से भी जाना जाता है।
* याज्ञवल्क्य स्मृति (Yajnavalkya Smriti):
यह धर्मशास्त्र का एक प्रमुख ग्रंथ है जो मनुस्मृति के समकक्ष माना जाता है, और कई मायनों में उससे अधिक व्यवस्थित और प्रगतिशील है। इसमें आचार (व्यक्तिगत कर्तव्य और नैतिकता), व्यवहार (कानून, न्याय और मुकदमेबाजी) और प्रायश्चित्त (पापों के लिए प्रायश्चित धर्म) का विस्तृत वर्णन है। यह ग्रंथ बाद में मिताक्षरा (विज्ञानेश्वर द्वारा रचित) जैसी महत्वपूर्ण टीकाओं के लिए आधार बना, जिसने भारतीय विधि-व्यवस्था को सदियों तक प्रभावित किया।
याज्ञवल्क्य की स्त्रियों के प्रति दृष्टि
याज्ञवल्क्य का योगदान इस बात में भी अत्यंत महत्वपूर्ण है कि उन्होंने वैदिक समाज में स्त्रियों को दार्शनिक विमर्श में एक सम्मानजनक और बराबरी का स्थान दिया। गार्गी और मैत्रेयी के साथ उनके संवाद इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि उन्होंने स्त्रियों की बौद्धिक जिज्ञासा और ज्ञान को पूर्ण मान्यता दी। यह उनकी प्रगतिशील और दूरदर्शी सोच को दर्शाता है, जो उस समय के सामाजिक मानदंडों से कहीं आगे थी।
राजनीतिक प्रभाव और न्याय-शास्त्र में योगदान
याज्ञवल्क्य स्मृति ने भारतीय न्यायशास्त्र की नींव रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह ग्रंथ न्याय प्रणाली, राजा के कर्तव्य, कर व्यवस्था, अपराध और दंड के विस्तृत वर्णन के साथ-साथ संपत्ति के अधिकार और विरासत कानूनों पर भी गहनता से प्रकाश डालता है। बाद में भारत में विकसित हुए प्रमुख न्यायशास्त्रों जैसे मिताक्षरा (विज्ञानेश्वर द्वारा), दयाभाग और पराशर स्मृति ने इन्हीं सिद्धांतों का आधार लिया, जिससे याज्ञवल्क्य का प्रभाव भारतीय विधि प्रणाली पर सदियों तक बना रहा। उनके सिद्धांतों ने निष्पक्ष न्याय और सुशासन की अवधारणा को सुदृढ़ किया।
याज्ञवल्क्य के प्रमुख उद्धरण और उनका महत्व
याज्ञवल्क्य के कुछ कथन आज भी भारतीय दर्शन और जीवनशैली के मूल सिद्धांतों को दर्शाते हैं:
* "न वै अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियो भवति, आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियम् भवति।"
(कोई वस्तु या व्यक्ति अपने कारण नहीं, आत्मा की कामना के कारण प्रिय होता है।) - यह उद्धरण प्रेम और आसक्ति के गहरे मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक आधार को उजागर करता है, और यह बताता है कि सभी सांसारिक संबंध आत्मा की इच्छा से ही उत्पन्न होते हैं।
* "अहम् ब्रह्मास्मि।"
(मैं ब्रह्म हूँ।) - यह अद्वैत वेदांत की मूल अवधारणा है, जो व्यक्ति और परमसत्ता के एकात्म्य को दर्शाती है। यह उद्धरण आत्मज्ञान के महत्व और मोक्ष के मार्ग को इंगित करता है।
याज्ञवल्क्य का ऐतिहासिक मूल्यांकन और विरासत
याज्ञवल्क्य का ऐतिहासिक मूल्यांकन उन्हें भारतीय ज्ञान परंपरा के एक केंद्रीय व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करता है:
* दर्शन: अद्वैत वेदांत की पूर्वपीठिका याज्ञवल्क्य के उपदेशों में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। उन्होंने ब्रह्म और आत्मा के अभेद को स्थापित कर भारतीय दर्शन को एक नई दिशा दी।
* स्मृति परंपरा: उनके स्मृति ग्रंथ ने हिंदू धर्म के विधिशास्त्र का आधार रखा, जो आज भी कानूनी अध्ययन में प्रासंगिक है।
* न्याय दर्शन: भारतीय विधि और न्याय का प्रारंभिक स्वरूप उनके ग्रंथों में परिलक्षित होता है, जिसने बाद के न्यायविदों के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
* समाज दृष्टि: स्त्रियों की बौद्धिक क्षमता को मान्यता देना और उन्हें दार्शनिक संवाद में शामिल करना उनकी व्यापक और प्रगतिशील सामाजिक दृष्टि को दर्शाता है।
निष्कर्ष
याज्ञवल्क्य भारतीय ज्ञान परंपरा के उस शिखर पर स्थित हैं, जहाँ से दर्शन, धर्म और न्याय की धाराएँ प्रवाहित होती हैं। वे एक ऐसे ऋषि थे जिन्होंने आत्मा की खोज को जीवन का परम उद्देश्य बताया, स्त्री-बुद्धि को सम्मान दिया और धर्म को केवल कर्मकांड से ऊपर उठाकर विवेक और आत्मज्ञान का विषय बनाया।
उनका जीवन, उनका चिंतन और उनका साहित्य आज भी न केवल भारतीय संस्कृति के लिए प्रेरणा का स्रोत है, बल्कि समस्त मानवता के लिए एक प्रकाशस्तंभ भी है। वे हमें यह सिखाते हैं कि सच्चा ज्ञान केवल पुस्तकों में नहीं, बल्कि आत्म-अन्वेषण, तर्क और न्याय के सिद्धांतों में निहित है।
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डॉ o संतोष आनन्द मिश्रा
ग्राम - मिश्रौली
पोस्ट - कंसी सिमरी
दरभंगा, बिहार
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डॉ o श्वेता झा
पूर्व शोधार्थी
मगध विश्वविद्यालय
बोधगया, गयाजी, बिहार
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