ऋषि याज्ञवल्क्य: वैदिक युग के अद्वितीय मनीषी
ऋषि याज्ञवल्क्य: वैदिक युग के अद्वितीय मनीषी
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
ऋषि याज्ञवल्क्य वैदिक काल के उत्तरार्ध में उभरकर सामने आते हैं, जो ईसा पूर्व 8वीं से 6ठीं शताब्दी के मध्य का समय माना जाता है। यह वह काल था जब वैदिक धर्म का स्वरूप कर्मकांड प्रधान से दर्शनप्रधान होने की ओर अग्रसर हो रहा था। इस संक्रमण काल में याज्ञवल्क्य ने न केवल शुक्ल यजुर्वेद की रचना की, बल्कि वेदांत दर्शन की नींव भी रखी।
गुरु वैशम्पायन से मतभेद और नवीन वेद की प्राप्ति
याज्ञवल्क्य, ऋषि वैशम्पायन के शिष्य थे जो कृष्ण यजुर्वेद के प्रवर्तक माने जाते हैं। एक प्रसंग के अनुसार जब याज्ञवल्क्य ने अपने गुरु से कहा कि वे स्वयं राजा जनक के यज्ञ में श्रेष्ठता सिद्ध करेंगे, तब यह अहंकार समझा गया और उन्हें आश्रम से निष्कासित कर दिया गया। इसके पश्चात उन्होंने सूर्य देवता की तपस्या की और उनसे शुक्ल यजुर्वेद प्राप्त किया, जिसे उन्होंने अपनी शाखा के शिष्यों को सिखाया। इसलिए यह शाखा वाजसनेयी संहिता कहलायी, क्योंकि याज्ञवल्क्य का एक अन्य नाम वाजसनेय था।
प्रमुख शिष्य और वंश परंपरा
याज्ञवल्क्य के शिष्यों ने शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाओं को आगे बढ़ाया:
- काण्व शाखा
- माध्यंदिन शाखा
ये दोनों शाखाएँ आज भी ब्राह्मणों के विभिन्न समुदायों में पढ़ी जाती हैं। यह शाखाएँ मंत्रों की संरचना में क्रम और भाषा की दृष्टि से कृष्ण यजुर्वेद से भिन्न हैं। इनमें यज्ञों की विधियों और मंत्रों को स्पष्ट और क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत किया गया है।
याज्ञवल्क्य की स्त्रियों के साथ संवाद: बौद्धिक समता का प्रतीक
मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी के साथ संवाद:
यह संवाद याज्ञवल्क्य के ज्ञान के चरम बिंदु को दर्शाता है। जब उन्होंने संन्यास ग्रहण करने का निश्चय किया, तब उन्होंने अपनी पत्नी मैत्रेयी से पूछा कि वे क्या चाहती हैं — संपत्ति या ज्ञान। मैत्रेयी ने उत्तर दिया:
"यदि सम्पूर्ण पृथ्वी मेरी हो जाए, तो भी क्या अमरत्व मिल सकता है?"
इस पर याज्ञवल्क्य ने ब्रह्म और आत्मा के रहस्य को अत्यंत सुंदर दार्शनिक भाषा में समझाया।
गर्गी वाचक्नी के साथ शास्त्रार्थ:
राजा जनक के विद्वत्सभा में आयोजित ब्रह्मवादिनी गर्गी और याज्ञवल्क्य के बीच हुआ संवाद बृहदारण्यक उपनिषद का एक प्रमुख अंश है। गर्गी ने ब्रह्म के स्वरूप को लेकर प्रश्न किए — "यह आकाश किससे आच्छादित है?" — और याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि वह "अविनाशी ब्रह्म" ही सभी के पीछे है। यह संवाद तर्क, संवाद, विमर्श और ज्ञान के आदान-प्रदान का एक उत्कृष्ठ उदाहरण है।
याज्ञवल्क्य स्मृति: धर्म, समाज और न्याय की नींव
याज्ञवल्क्य स्मृति एक अत्यंत महत्वपूर्ण धर्मशास्त्रीय ग्रंथ है जो वैदिक सामाजिक और धार्मिक व्यवस्थाओं का सार है। इसे तीन प्रमुख भागों में विभाजित किया गया है:
- आचार (व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के नियम)
- व्यवहार (न्याय और न्यायिक प्रक्रियाएँ)
- प्रायश्चित्त (पापों के प्रायश्चित्त हेतु विधियाँ)
इस ग्रंथ में राज्य, धर्म, दंड, स्त्री अधिकार, विवाह, उत्तराधिकार, दास प्रथा आदि पर विस्तृत नियम मिलते हैं। न्याय व्यवस्था की व्याख्या अत्यंत सुव्यवस्थित है। इस स्मृति पर मिताक्षरा और अपरार्क जैसे टीकाकारों ने विशेष व्याख्याएँ की हैं, जो आज भी हिंदू विधि में उपयोगी मानी जाती हैं।
याज्ञवल्क्य और दर्शन: 'नेति-नेति' की अवधारणा
याज्ञवल्क्य ने ब्रह्म को "नेति-नेति" (न यह, न वह) के माध्यम से परिभाषित किया — अर्थात ब्रह्म को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। यह विचार अपरोक्षानुभूति (प्रत्यक्षातीत अनुभव) की ओर संकेत करता है। उन्होंने कहा:
"अथातो ब्रह्म जिज्ञासा।"
ब्रह्म की खोज आत्मा की खोज है, और वह केवल ज्ञान से प्राप्त होती है, कर्म से नहीं।
मोक्ष का सिद्धांत और आत्मा की अमरता
याज्ञवल्क्य के अनुसार:
- आत्मा अकर्ता, अबाध और अविनाशी है।
- देह के नष्ट होने पर आत्मा शुद्ध रूप में विद्यमान रहती है।
- ज्ञान ही मोक्ष का मार्ग है, कर्म से केवल संसार चक्र चलता है।
उन्हें ज्ञानमार्ग (Jnana Yoga) का प्रणेता माना जा सकता है, जो आगे चलकर शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत का आधार बना।
सामाजिक दृष्टिकोण
याज्ञवल्क्य केवल दार्शनिक या वेदज्ञ नहीं थे, वे एक विवेकशील समाजशास्त्री भी थे। उन्होंने:
- स्त्रियों को ज्ञान के अधिकार का समर्थन किया।
- राज्य की निष्पक्ष न्यायव्यवस्था पर बल दिया।
- तप, संयम, परोपकार, श्रम और ब्रह्मचर्य को जीवन का आवश्यक अंग माना।
समकालीनता और प्रभाव
- याज्ञवल्क्य के समकालीन राजा जनक भी स्वयं विद्वान थे और उनके संवादों से प्रतीत होता है कि यह एक दार्शनिक राजतंत्र था।
- याज्ञवल्क्य की शिक्षाएँ बौद्ध और जैन परंपराओं को भी प्रभावित करती हैं — जैसे आत्मा की शुद्धता, कर्म का सिद्धांत, और मुक्ति की अवधारणा।
निष्कर्ष: याज्ञवल्क्य का शाश्वत प्रभाव
ऋषि याज्ञवल्क्य भारतीय दर्शन, धर्मशास्त्र और न्यायशास्त्र के त्रिस्तंभ हैं। उन्होंने शुद्ध वैदिक कर्मकांड को दार्शनिक ऊँचाई प्रदान की। उनके संवाद, उपदेश और स्मृतियाँ आज भी धर्म, समाज और जीवन की जटिल समस्याओं में दिशा देने वाली प्रकाशस्तंभ हैं। वे शब्दों के ऋषि नहीं, तत्त्व के साक्षात अनुभवी थे।
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