वाचस्पति मिश्र: भारतीय दर्शन के सार्वभौमिक भाष्यकार
वाचस्पति मिश्र: भारतीय दर्शन के सार्वभौमिक भाष्यकार
ऐतिहासिक संदर्भ और युग
वाचस्पति मिश्र का कार्यकाल लगभग 9वीं से 10वीं शताब्दी के बीच माना जाता है। यह काल भारतीय बौद्धिक जीवन के पुनरुत्थान का युग था जब भारत में विभिन्न दार्शनिक संप्रदाय—जैसे न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा (वेदांत), और बौद्ध मत—एक-दूसरे से सक्रिय संवाद में थे। इसी समय में अद्वैत वेदांत को शंकराचार्य के पश्चात गहराई और तार्किकता के साथ प्रस्तुत करने की आवश्यकता थी।
वाचस्पति मिश्र इसी दार्शनिक पुनरुत्थान के केंद्र में थे। उन्होंने बहुसंख्य दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन करके भारतीय विचार परंपरा को समृद्ध किया।
पारिवारिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
वाचस्पति मिश्र का जन्म मिथिला (वर्तमान बिहार) के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। मिथिला उस समय भारत की प्रमुख बौद्धिक राजधानी थी, जहाँ शास्त्रार्थ, वेद, मीमांसा और न्याय-दर्शन की शिक्षा दी जाती थी। यह भूमि याज्ञवल्क्य, मंडन मिश्र, और उदयनाचार्य जैसे महान दार्शनिकों की भी रही है।
किंवदंती:
एक लोककथा के अनुसार, वाचस्पति मिश्र की पत्नी ने उनसे विवाह के समय यह व्रत लिया था कि वे उनके जीवनकाल में कभी "पतिव्रता स्त्री" की मर्यादा से बाहर नहीं जाएँगी यदि वह उन्हें भी संन्यासी जैसा जीवन दे दें। इस कारण, यद्यपि उनका विवाह हुआ था, वे संन्यासी जैसे ब्रह्मचारी जीवन जीते रहे और ज्ञानार्जन में रत रहे।
विस्तृत कृतित्व
वाचस्पति मिश्र की कृतियाँ केवल भाष्य नहीं हैं, वे स्वयं चिंतन के स्तंभ हैं। वे जहाँ शंकराचार्य की व्याख्या को स्पष्ट करते हैं, वहीं मूल ग्रंथों के जटिल अर्थों का स्वतंत्र विवेचन भी करते हैं।
अद्वैत वेदांत: भामती
- यह वाचस्पति मिश्र की ब्रह्मसूत्रभाष्य पर व्याख्या है।
- 'भामती' की विशेषता यह है कि इसमें "जीव", "ब्रह्म", "माया", "ज्ञान और कर्म", तथा "मोक्ष" आदि विषयों पर अत्यंत तार्किक शैली में विवेचन किया गया है।
- इसमें वे ज्ञान को मोक्ष का एकमात्र साधन मानते हैं, परन्तु साधना, उपासना आदि की उपयोगिता को भी नकारते नहीं।
सांख्य: तत्त्वकैमुदी
- यह ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका पर आधारित है।
- इसमें प्रकृति-पुरुष द्वैत, तत्त्वों की संख्या (25), मोक्ष का सांख्य मार्ग आदि का सरलीकरण किया गया है।
- यह रचना सांख्य दर्शन के पदार्थमीमांसा को अत्यंत सुंदर और व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करती है।
योग: तत्त्ववैशारदी
- पतंजलि के योगसूत्र पर व्याख्या।
- उन्होंने योग के आष्टांग मार्ग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि) को दार्शनिक ढाँचे में रखा।
न्याय दर्शन: न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका
- उदयनाचार्य के न्यायवार्तिक पर आधारित।
- इसमें उन्होंने प्रमाण, ज्ञेय, श्रुति, अनुमान जैसे तत्वों की चर्चा की।
- यह ग्रंथ यह दर्शाता है कि वाचस्पति मिश्र केवल अद्वैत के ही नहीं, तर्क के भी महान ज्ञाता थे।
पूर्व मीमांसा: मीमांसा कुतूहल
- इसमें यज्ञ, कर्मकांड, और वैदिक विधियों पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
- वाचस्पति मिश्र यहाँ कर्म और ज्ञान के सामंजस्य को खोजते हैं।
दार्शनिक दृष्टिकोण: समन्वय और आलोचना
समन्वयवादी प्रवृत्ति:
- यद्यपि वे स्वयं अद्वैत वेदांती थे, उन्होंने किसी अन्य दर्शन को तिरस्कृत नहीं किया।
- उनके लेखन में विरोधी विचारों को भी न्यायसंगत ढंग से प्रस्तुत किया गया है, जिससे दार्शनिक बहुलता की रक्षा होती है।
तात्त्विक दृष्टिकोण:
- वाचस्पति मिश्र के अनुसार ब्रह्म ही एकमात्र तात्त्विक सत्य है, शेष सब माया है।
- उन्होंने ज्ञानमार्ग को मोक्ष का कारण बताया, परंतु वे भक्ति और ध्यान की भूमिका को भी स्वीकार करते है।
- भाष्यकार की भूमिका:
- वे शंकराचार्य की "सारदर्शन" को सामान्य जन तक पहुँचाने वाले महान व्याख्याता थे।
- उन्होंने शंकर की अपार संक्षिप्तता को तार्किक विस्तार दिया।
प्रभाव और परंपरा
भामती संप्रदाय:
- वाचस्पति मिश्र के भामती टीका से भामती संप्रदाय की स्थापना हुई, जो अद्वैत वेदांत का एक प्रमुख मत बन गया।
- बाद में प्रकाशात्मा यति, अमलानंद, नारायणसरस्वती आदि ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया।
शैक्षिक प्रभाव:
- उनकी रचनाएँ आज भी काशी, मिथिला, वाराणसी, कांची, कर्नाटक, और केरल के वेदांत विद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं।
वैश्विक दार्शनिक महत्व:
- आधुनिक युग में उनके ग्रंथों का अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में अनुवाद हुआ है।
- पाश्चात्य दर्शन के विद्वानों ने उनके लेखन को दर्शनशास्त्रीय पद्धति और तार्किक अनुशासन का अनुपम उदाहरण माना है।
उपसंहार: वाचस्पति मिश्र की विरासत
वाचस्पति मिश्र एक ऐसे अद्वितीय दार्शनिक हैं जिन्होंने अपने शब्दों से सेतु बनाए—न्याय और अद्वैत के बीच, कर्म और ज्ञान के बीच, और पारंपरिक और तार्किक दर्शन के बीच।
उनकी विद्वत्ता का मूल उद्देश्य केवल दार्शनिक वाद-विवाद नहीं था, बल्कि आध्यात्मिक मुक्ति के मार्गों को तार्किक संगति के साथ प्रस्तुत करना था। आज, जब दर्शन और विज्ञान के बीच संवाद की आवश्यकता है, तब वाचस्पति मिश्र हमारे लिए मार्गदर्शक प्रतीक बन सकते हैं—तर्क और आत्मा के संतुलन के रूप में।
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डॉ o संतोष आनन्द मिश्रा
ग्राम - मिश्रौली
पोस्ट - कंसी सिमरी
दरभंगा, बिहार
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डॉ o श्वेता झा
पूर्व शोधार्थी
मगध विश्वविद्यालय
बोधगया, गयाजी, बिहार
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