गौतम डोरे और मालू डोरे: वीर बलिदानी जो Alluri Sitarama Raju के स्वप्न को जीवित रखे
गौतम डोरे और मालू डोरे: वीर बलिदानी जो Alluri Sitarama Raju के स्वप्न को जीवित रखे
भूमिका:
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास उन अनगिनत वीरों की शौर्यगाथाओं से भरा पड़ा है, जिन्होंने बिना किसी स्वार्थ के मातृभूमि की मुक्ति के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। आंध्र प्रदेश के वनांचल क्षेत्र में जन्मे Elluri Sitarama Raju के नेतृत्व में जो “फितूरी विद्रोह” (Rampa Rebellion, 1922-23) हुआ, उसमें उनके दो प्रमुख सहयोगी रहे – Gautam Dore और Mallu Dore। ये दोनों भाई थे और उन्हीं की तरह वनवासी समुदाय से आते थे। उन्होंने अपने प्रिय नेता के बलिदान के बाद भी विद्रोह की मशाल को जलाए रखा।
Elluri Sitarama Raju और फितूरी विद्रोह की पृष्ठभूमि:
Elluri Sitarama Raju (1897-1924), जिन्हें सम्मानपूर्वक ‘Manyam Veerudu’ यानी 'जंगलों का वीर' कहा जाता है, ने अंग्रेज़ों के शोषण और अनुचित नीतियों के खिलाफ ईस्ट गोदावरी और विजाग (आंध्र प्रदेश) में जनजातीय समुदायों का नेतृत्व किया। 1922-23 में उन्होंने Chintapalli, Krishnadevipeta और Rajavommangi जैसे क्षेत्रों में पुलिस थानों पर धावा बोला, गोला-बारूद कब्ज़े में लिया और अंग्रेज़ अफसरों को मौत के घाट उतारा।
इस जन विद्रोह में उनके साथ दो प्रमुख नाम उभरे – Gautam Dore और Mallu Dore, जिन्होंने पहाड़ी क्षेत्रों और घने जंगलों में गुरिल्ला युद्ध की शैली में अंग्रेजों के नाक में दम कर दिया।
Gautam Dore और Mallu Dore का संघर्ष:
1. विद्रोह की अगुवाई:
Raju की मृत्यु के बाद जब अंग्रेजों ने सोचा कि विद्रोह समाप्त हो गया है, तब Gautam Dore और Mallu Dore ने उस आंदोलन को जीवित रखने का निर्णय लिया। उन्होंने वनवासी समुदाय को एकजुट किया, उन्हें आत्मरक्षा और गुरिल्ला युद्ध की कला में दक्ष बनाया और रम्पा विद्रोह को नया जीवन दिया।
2. कुशल रणनीतिकार:
दोनों भाई न केवल साहसी योद्धा थे, बल्कि चतुर रणनीतिकार भी थे। जंगलों और पहाड़ों की भौगोलिक जानकारी ने उन्हें अंग्रेजी सेनाओं के खिलाफ निर्णायक बढ़त दी। तीर-कमान और छापामार रणनीति से उन्होंने कई बार अंग्रेजी टुकड़ियों को पराजित किया।
गौतम दोरे का बलिदान (7 जून 1924):
जब एक गांव के मुखिया ने गौतम डोरे को बताया कि पुलिस उनके पीछे है, तो उन्होंने और उनके साथियों ने कुछ समय के लिए अपनी गतिविधियां रोक दीं। पुलिस को भ्रम हुआ कि विद्रोही अब भाग चुके हैं। लेकिन 7 जून 1924 को, एक विशाल पुलिस दल ने उन्हें एक नदी के निकट जंगल में खोज निकाला।
तीन दिशाओं से घिरी हुई पुलिस पार्टी के बावजूद गौतम डोरे ने वीरता से संघर्ष किया। उन्होंने दुश्मन को पीछे धकेला, लेकिन अंततः वे गंभीर रूप से घायल हुए और वीरगति को प्राप्त हुए।
मल्लू दोरे की गिरफ्तारी और फाँसी (19 जून 1924):
गौतम की मृत्यु के बाद, मालू डोरे अकेले रह गए। वह घायल भी थे, इसलिए सुरक्षित स्थान तक नहीं जा सके। अंततः पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया और मुकदमा चलाकर 19 जून 1924 को फांसी दे दी।
विरासत और प्रेरणा:
फितूरी विद्रोह, चाहे अंतिम रूप से दबा दिया गया हो, लेकिन इसकी गूंज जनमानस में अमिट रह गई। Elluri Sitarama Raju, Gautam Dore और Mallu Dore जैसे योद्धाओं ने यह सिद्ध कर दिया कि भारत के वनवासी और ग्रामीण जन भी स्वतंत्रता संग्राम में बराबरी के सेनानी थे।
उनकी बलिदानी कथा आज भी आंध्र प्रदेश और विशेषकर आदिवासी समुदायों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
निष्कर्ष:
गौतम डोरे और मालू डोरे उन गुमनाम नायकों में शामिल हैं जिनका त्याग और बलिदान राष्ट्र के इतिहास में अमर है। उन्होंने न केवल अपने नेता Sitarama Raju के मिशन को आगे बढ़ाया, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को जनजातीय चेतना और साहस का एक सशक्त अध्याय भी दिया।
उनकी पुण्यतिथि – 7 जून (गौतम डोरे) और 19 जून (मालू डोरे) – राष्ट्र के लिए स्मरण का दिन होना चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ जान सकें कि स्वतंत्रता केवल नेताओं की नहीं, बल्कि हर जन की लड़ाई थी।
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